"बीकानेर की स्वर्णकला और इसकी वर्तमान स्थिति"




आभूषण की नारी सौंदर्य में महत्वपूर्ण भूमिका युगों युगों से रही है। प्राचीन भारत से लेकर आधुनिक भारतीय संस्कृति में भी आभूषण के प्रति आकर्षण अनवरत बना रहा है। एक ओर जहां भारतीय परिवेश में सोने व चाँदी के आभूषणों को सौंदर्य के साथ साथ आवश्यकता के समय में एक निवेश के रूप में भी स्थान मिला वहीं विदेशों में भी अपने अपने स्तर पर इसकी उपयोगिता रही है। ग्रामीण जीवन में तो जन्म से लेकर मृत्यु तक में सोने चाँदी का एक विशेष महत्व रहा है। अपनी आर्थिक भौतिक क्षमताओं के आधार पर लोग सोने चाँदी का लेन देन करते आए हैं। यही  कारण है कि आभूषण की प्रासंगिकता समाज के प्रत्येक वर्ग में बनी रही। 


यदि बात बीकानेर की करें तो जितनी पहचान इस अलमस्त शहर को अपने भुजिया पापड़ के अविस्मरणीय स्वाद से मिली है उतनी ही विशिष्ट वैश्विक पहचान यहाँ के कुन्दन आभूषण जिसे स्थानीय भाषा में जड़ाऊ ज्वैलरी कहा जाता है, उसकी अद्भुत कारीगरी से भी मिली है। बीकानेर तथा आस पास के ग्रामीण एवं कस्बाई क्षेत्रों के हजारों ऐसे कारीगर हैं जो अपने स्वर्णकला के कौशल से अपनी आजीविका का निर्वहन कर रहे हैं। बीकानेर में बनी ज्वैलरी अपनी मौलिकता के आधार पर देश के महानगरों के साथ साथ अरब देशों सहित अनेकों छोटे बड़े देशों में व्यापक स्तर पर निर्यात होती है। एक आभूषण के ढांचे (Structure) की घड़ाई, अद्भुत मीनाकारी, बारीक छिलाई, उम्दा जड़ाई, नगीनों की सैटिंग और पॉलिस आदि की सम्पूर्ण निर्माण प्रक्रिया इस क्षेत्र को विशेष पहचान दिलवाने में बड़ा योगदान बनी हुई है। समय के साथ साथ फैशन के परिवर्तन में भी यहाँ के निपुण कारीगर अपने आपको ढालते हुए आधुनिक नवीन प्रयोग करते रहे हैं। परंतु गत कुछ वर्षों से इन कामगारों की स्थिति विकट बनी हुई है। बीकानेर के स्थापना दिवस अक्षय तृतीया (आखाबीज, आखातीज) के परंपरागत अबूझ सावे में जहाँ इन सभी कारीगरों के साथ साथ बड़े बड़े ज्वैलरी शोरूम से लेकर गली मोहल्लों तक के ज्वैलरी व्यवसायी व्यस्त रहते थे वहीं कुछ वर्षों से इस व्यवसाय से जुड़े लोगों पर अब आजीविका का विकट संकट गहरा गया है। यह स्थिति केवल अक्षयतृतीया की ही नहीं है बल्कि और भी सावों सहित धनतेरस, दीपावली और ईद पर भी कमोबेश ऐसी ही सुस्ती देखने को मिल रही है। इसका प्रमुख कारण वर्तमान की वैश्विक कोरोना परिस्थितियों के साथ अंतराष्ट्रीय बाजार में सोने व चाँदी के मूल्यों में बहुत कम समय में हुई अप्रत्याशित वृद्धि का होना भी है। यदि यही स्थितयां रहीं तो इस कार्य से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े सभी व्यक्तियों के जीवन यापन पर और अधिक संकट आ सकता है।


इस कार्य में पीढ़ियों से जुड़े कारीगरों और इनके इस कौशल के समृद्ध विकास तथा प्रोत्साहन को सरकारी स्तर पर भी कभी कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया यही कारण है कि विश्व की सबसे मूल्यवान धातुओं के आभूषण बनाने वाले यह हस्तशिल्प आज स्वयं की उपेक्षा से ग्रस्त तथा विवश हो कर आजीविका के अन्य स्तोत्रों की ओर पलायन शुरू कर रहे हैं जो कि इस कला के भविष्य के लिए दुर्गामी दुष्परिणाम वाला सिद्ध होगा। अब तो केवल उम्मीद ही की जा सकती है कि लुप्त हो रही इस कला को पुनः जीवनदान और इसके कारीगरों के सुखद भविष्य के लिए कोई संजीवनी मिले।

सादर :-

मयंक सोनी

युवा रंगकर्मी, लेखक